Thursday, 31 August 2017

शिव कथा, Shiv Katha- जानिए भगवान शिव क्यों कहलाए त्रिपुरारी

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www.sbvktrust.org By पुष्प ठाकुर जी महाराज, श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट 


Shiv Katha : कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था। त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी प्रसिद्ध है। भगवान शिव ने कैसे किया त्रिपुरों का नाश, ये पूरी कथा इस प्रकार है-

ब्रह्माजी ने दिया था ये अनोखा वरदान
शिवपुराण के अनुसार, दैत्य तारकासुर के तीन पुत्र थे- तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली। जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने देवताओं से बदला लेने के लिए घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो उन्होंने अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा। तब उन तीनों ने ब्रह्माजी से कहा कि- आप हमारे लिए तीन नगरों का निर्माण करवाईए। हम इन नगरों में बैठकर सारी पृथ्वी पर आकाश मार्ग से घूमते रहें। एक हजार साल बाद हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर (नगर) मिलकर एक हो जाएं, तो जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
मयदानव ने किया था त्रिपुरों का निर्माण
ब्रह्माजी का वरदान पाकर तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। उनमें से एक सोने का, एक चांदी का व एक लोहे का था। सोने का नगर तारकाक्ष का था, चांदी का कमलाक्ष का व लोहे का विद्युन्माली का।
अपने पराक्रम से इन तीनों ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। इन दैत्यों से घबराकर इंद्र आदि सभी देवता भगवान शंकर की शरण में गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए तैयार हो गए। विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।
ऐसे हुआ त्रिपुरों का नाश
चंद्रमा व सूर्य उसके पहिए बने, इंद्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपाल उस रथ के घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। स्वयं भगवान विष्णु बाण तथा अग्निदेव उसकी नोक बने। उस दिव्य रथ पर सवार होकर जब भगवान शिव त्रिपुरों का नाश करने के लिए चले तो दैत्यों में हाहाकर मच गया।
दैत्यों व देवताओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान शिव ने दिव्य बाण चलाकर उनका नाश कर दिया। त्रित्रुरों का नाश होते ही सभी देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के लिए ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहते हैं।

श्री सूक्त स्तोत्र || Sri Suktam stotra || Shradha Bhakti Viswa Kalyan Trust || Pushp Thakur Ji Maharaj ||

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www.sbvktrust.org By पुष्प ठाकुर जी महाराज, श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट 

॥वैभव प्रदाता श्री सूक्त॥


हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्र​जाम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥
प्रभासां यशसा लोके देवजुष्टामुदाराम् ।पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥५॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद गृहात् ॥८॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥
कर्दमेन प्रजाभूता सम्भव कर्दम ।श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस गृहे ।नि च देवी मातरं श्रियं वासय कुले ॥१२॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम् ॥१५॥
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे ।त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥१७॥
अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने ।धनं मे जुषताम् देवी सर्वकामांश्च देहि मे ॥१८॥
पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् ।प्रजानां भवसि माता युष्मन्तं करोतु माम् ॥१९॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः ।धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते ॥२०॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा ।सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥२१॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः ।भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥२२॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे ।भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥३२॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् ।विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥३३॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥३४॥
श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते ।धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥३५॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः ।भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥३६॥

Sunday, 27 August 2017

Prayag Sewa Dham || प्रयाग सेवा धाम ||: Tirthraj Prayag | तीर्थराज प्रयाग, पुष्प ठाकुर जी ...

Prayag Sewa Dham || प्रयाग सेवा धाम ||: Tirthraj Prayag | तीर्थराज प्रयाग, पुष्प ठाकुर जी ...: WWW.SBVKTRUST.ORG   श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट   Pushp Thakur Ji Maharaj "को कही सकैए प्रयाग प्रभाउ कलुष पुंज कुंजर मृगर...

Tirthraj Prayag | तीर्थराज प्रयाग, पुष्प ठाकुर जी महाराज, shradha bhakti viswa kalyan trust



WWW.SBVKTRUST.ORG  श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट  Pushp Thakur Ji Maharaj


"को कही सकैए प्रयाग प्रभाउ कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ

अस तीरथपति देखि सुहावा सुख सागर रघुबर सुख पावा"


प्रयाग का महत्व व्यापक रूप से स्थलीय और खगोलीय ब्रह्मांड में जाना जाता है। संगम के पवित्र जल में स्नान करके सभी पापों में छुट जाता है। भक्त सभी अपनी इच्छाओं को प्रदान किया जाता है यह एक साधारण स्नान का महत्व है, और इसलिए कुंभ के दौरान एक स्नान का महत्व कई गुना है। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है और इसका अनुभव होना चाहिए

और पापों के सबसे बड़े ढेर को खत्म कर सकते हैं और इसलिए किसी को अपनी महिमा का किसी भी तरीके से वर्णन करने में सक्षम नहीं है। श्रीराम, जो आनंद का सर्वोच्च है, ने भी प्रयाग पर तीर्थयात्रियों के राजा का दौरा किया। प्रयागराज को सभी पवित्र स्थानों के राजा तीर्थ राज के नाम से जाना जाता है।

त्रिवेणी माधवं सोमं भरद्वाजं च वासुकीम। वन्दे अक्षयवटं शेषं प्रयागं तीर्थनायकं।।
सकल कामप्रद तीरथराऊ। वेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।

शहर का प्राचीन नाम प्रयाग ("बलिदान की जगह" के लिए संस्कृत) है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने विश्व बनाने के बाद अपना पहला बलिदान दिया था। इसकी स्थापना के बाद से, इलाहाबाद ने भारत के इतिहास और सांस्कृतिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इलाहाबाद (प्रयाग) में त्रिवेणी संगम 3 नदियों, गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। इन तीनों में से, सरस्वती नदी अदृश्य है और इसे भूमिगत रूप से प्रवाहित करने और नीचे से अन्य दो नदियों में शामिल होने के लिए कहा जाता है। यहां यमुना के नीले पानी के साथ गंगा के पानी में विलय हो गया है। जबकि गंगा केवल 4 फीट गहरा है, यमुना 40 फीट गहराई से अपनी गठजोड़ के बिंदु के पास है। यमुना नदी इस बिंदु पर गंगा में विलीन हो जाती है। इन दो महान भारतीय नदियों के संगम पर, जहां अदृश्य सरस्वती ने उन्हें सम्मिलित किया है, यह, साथ में प्रवासी पक्षियों के साथ जनवरी माह में कुंभ मेले के दौरान नदी पर एक खूबसूरती दिखती है। यह माना जाता है कि सभी देवता मानव रूप में संगम में डुबकी लेते हैं और अपने पापों को प्रायोजित करते हैं।


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http://www.sbvktrust.org  श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट  Pushp Thakur Ji Maharaj  पुष्प ठाकुर जी महाराज
प्रयाग में तीर्थ स्थलss
पुराणों में प्रयाग में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ स्थलों की मौजूदगी का उल्लेख है इसमें स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल लोक में एक-एक करोड़ और वातावरण में पचास लाख शामिल हैं। यह पद्म पुराण के स्वर्णभूमि में कहा जाता है कि प्रयाग में बीस करोड़ और दस हजार तीर्थयात्री उपस्थित हैं। यह संख्या किसी व्यक्ति के लिए इस संख्या पर विश्वास करना आसान नहीं है क्योंकि यह आंकड़ा भारत की आबादी का पांचवां हिस्सा है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत तीर्थयात्रा का देश है। यह नंदिनी और कामधेनू जैसे पवित्र गायों का जन्मस्थान है, और यह भी कहा जाता है कि नंदिनी के शरीर में राजा विश्वेश्वर की सेना को पराजित करने के लिए असंख्य सैनिक निकल आए हैं

Saturday, 26 August 2017

Bhagavata Purana Gopigeeta भागवत पुराण गोपी गीत || Pushp Thakur Ji Maharaj || www.sbvktrust.org

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www.sbvktrust.org श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट, Katha wachak (कथा वाचक) पूज्य श्री पुष्प ठाकुर जी महाराज ||


॥ गोपीगीतम् ॥ 

गोपी गीत' श्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं । रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है । भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं । उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं । वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है । इसमें प्रेम के अश्रु,मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है । भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल,सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।
गोप्य ऊचुः


जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1॥



हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।


शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥



हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।


विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3॥



हे पुरुष शिरोमणि ! यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु , अजगर के रूप में खाने वाली मृत्यु अघासुर , इन्द्र की वर्षा , आंधी , बिजली, दावानल , वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार- बार हम लोगों की रक्षा की है।


न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4॥



हे परम सखा ! तुम केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।


विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5॥



हे यदुवंश शिरोमणि ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।।


व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6॥



हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर ! तुम सभी व्रजवासियों का दुःख दूर करने वाले हो । तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक एक झलक ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त हैं । हे हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।


प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7॥



तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो।।
गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8॥



हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । तुम्हारा एक एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है । बड़े बड़े विद्वान उसमे रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं । हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो।।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥



हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10॥


हे प्यारे ! एक दिन वह था , जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है , उसके बाद तुम मिले । तुमने एकांत में ह्रदय-स्पर्शी ठिठोलियाँ की, प्रेम की बातें कहीं । हे छलिया ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर देती हैं।।

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11॥



हे हमारे प्यारे स्वामी ! हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके, कुश एंव कांटे चुभ जाने से कष्ट पाते होंगे; हमारा मन बेचैन होजाता है । हमें बड़ा दुःख होता है।।

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12॥


हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं की तुम्हारे मुख कमल पर नीली नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़ उड़कर घनी धुल पड़ी हुई है । तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखा दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलन की आकांक्षा उत्पन्न करते हो।।

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13॥



हे प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले है । स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं । और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित है जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । हे कुंजबिहारी ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरूप चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो।।

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14॥



हे वीर शिरोमणि ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को को बढ़ाने वाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक संताप को नष्ट कर देता है । यह गाने वाली बांसुरी भलीभांति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने उसे एक बार पी लिया, उन लोगों को फिर अन्य सारी आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता । अपना वही अधरामृत हमें पिलाओ।।

अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15॥



हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16॥



हे हमारे प्यारे श्याम सुन्दर ! हम अपने पति-पुत्र, भाई -बन्धु, और कुल परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । हे कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।।

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17॥



हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं । हे प्रिये ! तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18॥



हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो, जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19॥



हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी कोमल हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं।।


श्री गणेशजी चालीसा || Prayag Aarti Sangrah|| प्रयाग आरती संग्रह ||

श्री गणेश चालीसा (Shri Ganesha Chalisa in Hindi)
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गणेश चालीसा सर्वप्रथम पूजनीय भगवान श्रीगणेश की कृपा पाने का एक माध्यम या एक ऐसा मार्ग है, जो किसी भी कार्य को पूर्ण करने में सहायक है। यदि सुबह सुवेरे नियमित रुप से गणेश चालीसा का पाठ किया जाए तो घर में खुशहाली रहती है. घर-परिवार में सुविधा-संपन्नता बनी रहती है. इस पाठ के करने से परिवार में बरकत बनी रहती है. आइए गणेश चालीसा का पाठ आरंभ करें.

|| दोहा ||

  जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल। 
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥

|| चौपाई ||

जय जय जय गणपति गणराजू। मंगल भरण करण शुभ काजू॥
जय गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥
राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता। गौरी ललन विश्व-विख्याता॥
ऋद्घि-सिद्घि तव चंवर सुधारे। मूषक वाहन सोहत द्घारे॥

कहौ जन्म शुभ-कथा तुम्हारी। अति शुचि पावन मंगलकारी॥
एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी।

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा॥
अतिथि जानि कै गौरि सुखारी। बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥

अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥
मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला। बिना गर्भ धारण, यहि काला॥

गणनायक, गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम, रुप भगवाना॥
अस कहि अन्तर्धान रुप है। पलना पर बालक स्वरुप है॥

बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥
सकल मगन, सुखमंगल गावहिं। नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं॥

शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं। सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं॥
लखि अति आनन्द मंगल साजा। देखन भी आये शनि राजा॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक, देखन चाहत नाहीं॥
गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो। उत्सव मोर, शनि तुहि भायो॥

कहन लगे शनि, मन सकुचाई। का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ। शनि सों बालक देखन कहाऊ॥

पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा। बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा॥
गिरिजा गिरीं विकल है धरणी। सो दुख दशा गयो नहीं वरणी॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा। शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो। काटि चक्र सो गज शिर लाये॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे॥

बुद्घि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥
चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई॥

धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥
चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥

तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई। शेष सहसमुख सके गाई॥
मैं मतिहीन मलीन दुखारी। करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै। अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै॥

श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान। नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥
 || दोहा ||

सम्वत अपन सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश। पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश॥

पूज्य श्री पुष्प ठाकुर जी महाराज
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श्री गणेशजी की आरती || Prayag Aarti Sangrah|| प्रयाग आरती संग्रह ||

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जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
एकदन्त दयावन्त चारभुजाधारी । (माथे पर सिन्दूर सोहेमूसे की सवारी)
माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी। 
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा । (हार चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा
लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा॥
अँधे को आँख देत कोढ़िन को काया  बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
दीनन की लाज राखो, शम्भु सुतवारी । कामना को पूर्ण करो, जग बलिहारी॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
'सूर' श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा॥

दास पुष्प ठाकुर जी महाराज, श्रद्धा भक्ति विश्व कल्याण ट्रस्ट
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Friday, 25 August 2017

संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् II Sankatganganesh Sutramam II www.sbvktrust.org

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पुष्प ठाकुर जी महाराज

संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् 

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थसिद्धये ॥ १॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥ २॥

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ॥ ३॥

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ ४॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरः प्रभुः ॥ ५॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥ ६॥

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ ७॥

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ ८॥


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पुष्प ठाकुर जी महाराज

संकटनाशनगणेशस्तोत्रम् अर्थ 

1- नारद जी बोले पार्वती नन्दन श्री गणेशजी को सिर झुकाकर प्रणाम करें
    और फिर अपनी आयु , कामना और अर्थ की सिद्धि के लिये
    उन भक्तनिवास का नित्यप्रति स्मरण करें ।।

2- पहला वक्रतुण्ड टेढे मुखवाले, दुसरा एकदन्त एक दाँतवाले,
    तीसरा कृष्ण पिंगाक्ष काली और भूरी आँख वाले,
    चौथा गजवक्र हाथी के से मुख वाले ।।

3- पाँचवा लम्बोदरं बड़े पेट वाला, छठा विकट (विकराल),
    साँतवा विघ्नराजेन्द्र (विध्नों का शासन करने वाला राजाधिराज)
    तथा आठवाँ धूम्रवर्ण (धूसर वर्ण वाले) ।।

4- नवाँ भालचन्द्र जिसके ललाट पर चन्द्र सुशोभित है,
    दसवाँ विनायक, ग्यारवाँ गणपति और बारहवाँ गजानन ।।

5- इन बारह नामों का जो मनुष्य तीनों सन्धायों (प्रातः, मध्यान्ह और सांयकाल)
    में पाठ करता है, हे प्रभु ‍! उसे किसी प्रकार के विध्न का भय नहीं रहता,
    इस प्रकार का स्मरण सब सिद्धियाँ देनेवाला है ।।

6- इससे विद्याभिलाषी विद्या, धनाभिलाषी धन, पुत्रेच्छु पुत्र तथा
    मुमुक्षु मोक्षगति प्राप्त कर लेता है ।।

7- इस गणपति स्तोत्र का जप करे तो छहः मास में इच्छित फल
    प्राप्त हो जाता है तथा एक वर्ष में पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है
    इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।

8- जो मनुष्य इसे लिखकर आठ ब्राह्मणों को समर्पण करता है,
    गणेश जी की कृपा से उसे सब प्रकार की विद्या प्राप्त हो जाती है ।।
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